Wednesday, October 30, 2024

characteristics of management in hindi

प्रबंध की विशेषताएं 

characteristics of management in hindi – जैसा की हम जानते है की प्रबंध वह एक प्रक्रिया है जिसमे काम को कुशल और प्रभावी ढंग से करने के लिए कर्यो के एक समूह जैसे नियोजन, संगठन, नियुक्तिकरण, निर्देशन और नियंत्रण के माध्यम से पूरा किया जाता है। आज हम प्रबंध की विशेषताएं के बारे में जानेगें जो की विषेशज्ञ द्वारा बनाया गया है है।

प्रबन्ध की परिभाषाओं का आधार प्रबन्ध की विशेषताएं ही हैं । एक प्रबन्ध विशेषज्ञ ने प्रबन्ध के किसी विशेष लक्षण को अधिक महत्व देते हुए उसी के आधार पर अपना मत प्रस्तुत किया है तो दूसरे विशेषज्ञ ने किसी दूसरे लक्षण को अधिक महत्व दिया है और के नए विशेषता को बताया है । लेकिन वास्तविकता यह है कि प्रबन्ध में वे सभी लक्षण विद्यमान हैं जो विभिन्न विशेषज्ञों द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं ।

characteristics of management in hindi

प्रबंध की विशेषताएं निम्नलिखित है –

  •  यह एक सामूहिक क्रिया होती है ( It is a Group Activity )
  •  यह उद्देश्य प्रधान प्रक्रिया है ( It is Goal Oriented Process)
  • इसका एक पृथक् अस्तित्व है ( It has a Distinct Entity )
  • यह एक अदृश्य शक्ति है ( It is an Intangible Force )
  • यह एक प्रक्रिया है ( It is a Process )
  • यह एक जन्मजात एवं अर्जित प्रतिभा है ( It is an laborn and Acquired Ability )
  • यह एक सार्वभौमिक क्रिया है ( Iris a Universal Activity )
  • यह एक सामाजिक विज्ञान है ( Itisa Social Science )
  • यह विभिन्न दर्शनपाही ज्ञान है ( It is Multidisciplitary )
  • यह विज्ञान एवं कला दोनों है ( It is both Science and Art )
  • यह एक पेशा है ( It is a Profession )
  • इसका सामाजिक उत्तरदायित्व होता है ( It involes Social Responsibility )
  • यह एक गतिशील व्यवस्था है ( Itis a Dynamic System )
  • यह एक प्रणाली है ( Irisa System )

परिभाषाओं के माध्यम से निम्नलिखित विशेषताओं को प्रकट किया गया है।

( 1 ) यह एक सामूहिक क्रिया है ( It is a Group Activity )

प्रबन्ध की इस विशेषता के अनुसार , प्रबन्धकीय क्रिया को सम्पन्न करने वाला कोई एक व्यक्ति ( अकेला प्रबन्धक ) नहीं होता है जबकि  यह तो अनेक व्यक्तियों ( प्रबन्धकों ) का समूह होता है । यानी  जब हम प्रबन्ध शब्द का उच्चारण करते हैं इसका अभिप्राय एक संस्था में कार्यरत उन सभी व्यक्तियों से है जो प्रबन्धकीय पदों पर नियुक्त हैं । संस्था में लिए जाने वाले प्रत्येक निर्णय से सभी प्रबन्धक प्रभावित होते हैं । सभी के मिल – जुल कर काम करने पर ही किसी काम को सफलतापूर्वक पूरा किया जा सकता है । उदाहरण के लिए , एक कम्पनी अपने व्यवसाय का विस्तार करना चाहती है । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विपणन प्रबन्धक , उत्पादन प्रबन्धक , क्रय प्रबन्धक , वित्त प्रबन्धक , सेविवर्गीय  ऐसी संस्थाओं के संबंध में प्रबन्ध को समूह कहना उचित नहीं होगा । प्रबन्धक आदि सभी की भागीदारी आवश्यक है । अतः इस कारण  प्रबन्ध को सामूहिक प्रयत्न कहा जा सकता है।

( 2 ) यह उद्देश्य प्रधान प्रक्रिया है ( It is Goal Oriented Process ) 

प्रत्येक संगठन की स्थापना किसी न किसी उद्देश्य प्राप्ति के लिए  की जाती है । प्रबन्ध एक ऐसा माध्यम / शक्ति होती  है जो इन उद्देश्यों की प्राप्ति को सरल बना देता है । प्रबन्धक अपने विशेष ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर भावी घटनाओं का पूर्वानुमान लगाता है व योजनाएं बनाता है । वह अधीनस्थों की कार्य प्रगति पर लगातार नजर रखता है और उनका मार्ग दर्शन भी करता है । समय – समय पर उन्हें अभिप्रेरित करता है।

( 3 ) इसका एक पृथक् अस्तित्व है ( It has a Distinct Entity ) 

प्रबन्ध की इस विशेषता के अनुसार , व्यवसाय का पैमाना बढ़ जाने के कारण यह सम्भव नहीं है कि प्रबन्ध क्रिया को स्वामी स्वयं ही सम्पन्न करें । इसको अधिक स्पष्ट करते हुए यह कहा जा सकता है कि किसी व्यावसायिक संस्था में स्वामी ( पूजी लगाने वाले ) तथा प्रबन्धक ( संचालन अथवा प्रबन्ध करने वाले ) अलग – अलग व्यक्ति हो सकते हैं । उदाहरण के लिए , एक कम्पनी व्यवसाय में यह सम्भव नहीं है कि कम्पनी के स्वामी अर्थात् अंशधारी या उनके प्रतिनिधि अर्थात् संचालक कम्पनी का प्रबन्ध कुशलतापूर्वक कर सके । कम्पनी प्रबन्ध के लिए विशेष योग्यता वाले विशेषज्ञ व्यक्तियों की आवश्यकता होती है जिन्हें प्रबन्धक कहा जाता है । इस प्रकार प्रबन्ध का एक पृथक अस्तित्व होता है ।

( 4 ) यह एक अदृश्य शक्ति है ( It is an Intangible Force ) 

प्रबन्ध एक ऐसी शक्ति है जिसको प्रत्यक्ष या मूर्त रूप में नहीं देखा जा सकता , केवल संस्था की सफलता के मूल्यांकन के आधार पर इसकी अनुभूति की जा सकती है । उदाहरण के लिए , यदि कोई संस्था उत्तरोत्तर उन्नति की ओर अग्रसर है तो समझा जायेगा कि प्रबन्ध अच्छा है । इसके विपरीत , यदि कोई संस्था अवनति की ओर जा रही है तो प्रबन्ध की असफलता का संकेत मिलता है । अतः प्रबन्ध को अमूर्त , अदृश्य या अप्रत्यक्ष शक्ति की संज्ञा दी जा सकती है ।

( 5 ) यह एक प्रक्रिया है ( It is a Process )

प्रबन्ध को एक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित करने वाले प्रबन्ध विशेषज्ञों में थियो हैमन , टेरी , मेक्फारलैण्ड , कृण्ट्ज तथा ओ’डोनेल प्रमुख हैं । इन विद्वानों के अनुसार प्रबन्ध एक प्रक्रिया है जिसमें नियोजन , संगठन , नियुक्तियां , निर्देशन एवं नियन्त्रण सम्मिलित हैं तथा इनका निष्पादन मानवीय एवं भौतिक साधनों के कुशलतापूर्वक उपयोग द्वारा उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है । प्रक्रिया का अर्थ होता है किसी काम को करने की एक निश्चित प्रणाली का होना । प्रबन्ध के संबंध में ऐसा स्पष्ट भी होता है क्योंकि हर प्रबन्धक को चाहे वह किसी भी संस्था और किसी भी स्तर का प्रबन्धक क्यों न हो , ये कार्य इसी क्रम में करने ही पड़ते हैं ।

( 6 ) यह एक जन्मजात एवं अर्जित प्रतिभा है ( It is an laborn and Acquired Ability )

प्रबन्ध योग्यता का जन्मजात होना एवं अर्जित किया जाना दो अलग – अलग पहलु हैं । परम्परागत प्रबन्ध विचारधारा ( Traditional Management Concept ) के अनुसार प्रबन्ध क्षमता का गुण मनुष्य में जन्म से ही होता है अर्थात् प्रबन्धक बनाये नहीं जाते , अपितु जन्म लेते हैं । इस विचारधारा के परिणास्वरूप ही परम्परागत एवं पैतृक उद्योग – धन्धों का विकास हुआ । दूसरे शब्दों में , प्रबन्धकीय कौशल एवं ज्ञान जन्मजात होता है और व्यक्ति को विरासत में मिलता है तथा इसे शिक्षण एवं प्रशिक्षण ( Education and Training ) द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता । परम्परागत विचारधारा का खण्डन करते हुए आधुनिक प्रवन्ध विचारधारा ( Modern Management Concept ) के अनुसार प्रबन्ध योग्यता को शिक्षण एवं प्रशिक्षण द्वारा प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् यदि किसी व्यक्ति में जन्म से प्रबन्ध योग्यता का गुण नहीं है तो उसे इस बारे में चिंतित होने की जरूरत नहीं है क्योंकि अब इस विषय में शिक्षा देने वाली संस्थाओं की कमी नहीं है । अत : यह कहना कि प्रबन्ध योग्यता जन्म से ही होती है और इसे ग्रहण नहीं किया जा सकता , बिल्कुल गलत है । हां , एक बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यदि किसी व्यक्ति में जन्म से यह गुण है तो थोड़े शिक्षण व प्रशिक्षण द्वारा ही उसको निखारा जा सकता है और जिस व्यक्ति में जन्म से इस गुण का अभाव रहा है उसे यह योग्यता ग्रहण करने में अधिक मेहनत की आवश्यकता होगी ।

( 7 ) यह एक सार्वभौमिक क्रिया है ( Iris a Universal Activity ) 

अनेक प्रबन्ध विशेषज्ञों ने इसको सार्वभौमिक क्रिया बताया है । यह विचार प्रस्तुत करने वालों में थियो हैमन , हेनरी फेयोल , टैरी तथा टेलर प्रमुख हैं । सार्वभौमिकता से अभिप्राय उस से है जो सभी क्षेत्रों ( व्यावसायिक एवं गैर – व्यावसायिक ) में समान रूप से लागू होता है और प्रबन्ध में यह गुण विद्यमान है । प्रत्येक व्यावसायिक ( औद्योगिक उपक्रम ) तथा गैर – व्यवसायिक संस्था ( शिक्षण संस्थायें , सरकारी कार्यालय , खेल का मैदान , कृषि फार्म , सेना ,क्लब एवं अन्य सामाजिक संस्थान ) को अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु मानवीय तथा भौतिक साधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग करने के लिए नियोजन , संगठन , नियुक्तियाँ , अपणीयता , नियन्त्रण आदि की आवश्यकता पड़ती है । इस प्रकार सभी संस्थाओं में प्रक्रिया एक ही प्रकार से संचालित की आती है और इसके संचालन में लगभग एक समान सिद्धांतों का प्रयोग किया जाता है ।

 ( 8 ) यह विभिन्न दर्शनपाही ज्ञान है ( It is Multidisciplitary )

वस्तुतः प्रबन्ध एक विभिन्न दर्शनमाही ज्ञान है । इसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि प्रबन्ध एक विशेष शास्त्र अथवा झिाय ( Discipline ) के रूप में विकसित हो चुका है लेकिन यह अनेक दूसरे शास्त्रों का ऋणी है जिनसे इसने ज्ञान एवं धारणायें ग्रहण की है । प्रबन्ध शास्त्र को विकसित करने में जिन दूसरे शास्त्रों का सहारा लिया गया है । उनमें मनोविज्ञान ( Psychology ) , समाजज्ञासा ( Sociology ) , मानवशाख ( Anthropology ) अर्थशास्त्र ( Economics ) , सांख्यिकी ( Statistics ) , गणित ( Mathematics ) आदि प्रमुख हैं । प्रबन्ध शास्त्र ने इन विभिन्न शास्त्रों के विचार एवं धारणाओं को एकत्रित करके विभिन्न संस्थाओं के प्रबन्ध के उद्देश्य से अपनी नई धारणाओं एवं सिद्धांतों को प्रस्तुत किया है । वास्तव में विभिन्न शाखों से एकत्रित ज्ञान ( Integrated Knowledge ) का प्रबन्ध में महान योगदान रहा है और इस एकत्रित ज्ञान समूह को ही प्रबन्ध का आधार कहा जाता है । विभिन्न शास्त्रों का प्रबन्ध में योगदान इस उदाहरण से स्पष्ट होता है प्रबन्ध में नेतृत्व एवं अभिप्रेरणा के सिद्धांत समाजशास्त्र एवं मानवशास्त्र में किये गए शोधकार्यों पर आधारित है जबकि उत्पादन , नियोजन एवं नियन्त्रण ( Production Planning and Control ) के सिद्धांत औद्योगिक इंजिनियरिंग तथा गणित पर आधारित हैं ।

( 9 ) यह एक सामाजिक विज्ञान है ( Itisa Social Science ) 

सामाजिक विज्ञान का अभिप्राय ऐसे विज्ञान से है जिसका संबंध प्राणियों से हो । अर्थशास्त्र , समाजशास्त्र , राजनीतिशास्त्र आदि सामाजिक विज्ञानों की तरह प्रबन्ध भी एक सामाजिक विज्ञान है । इसका संबंध सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य ‘ से है , जो संवेदनशील , विवेकशील एवं गतिशील प्राणी है तथा जिसको निर्जीव पदार्थों की तरह पूर्णतया नियमबद्ध नहीं किया जा सकता । मनुष्य को आवश्यकतानुसार अपने व्यवहार में परिवर्तन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है । यहीं कारण है कि सामाजिक शास्त्रों के सिद्धांत , भौतिक शास्त्रों ( Physical Sciences ) के सिद्धांतों की भान्ति कठोर नहीं हो सकते । अतः प्रबन्धक इन सिद्धांतों को अपने मार्ग दर्शक के रूप में तो स्वीकार करते हैं लेकिन अन्तिम निर्णय लेने के लिए उन्हें अन्य बातों को भी ध्यान में रखना पड़ता है ।

( 10 ) यह एक प्रणाली है ( Irisa System ) 

आधुनिक प्रबन्ध विशेषज्ञ प्रबन्ध को एक पद्धति प्रणाली अथवा तन्त्र के रूप में मानते हैं । जब प्रबन्ध को एक पद्धति , प्रणाली या तन्त्र के रूप में देखा जा रहा है तो इसका अभिप्राय यह है कि हम प्रबन्ध के समय अथवा कुल ज्ञान की दिशा में तेजी से बढ़ रहे हैं । यहा समग्र ज्ञान का अर्थ है प्रबन्ध में किसी एक पहलू के स्थान पर सभी पहलुओं पर एक साथ विचार विमर्श करना । उदाहरण के लिए , जिस प्रकार डॉक्टर रोगी की चिकित्सा करते समय उसकी सम्पूर्ण शारीरिक संरचना को ध्यान में रखता है अर्थात् उसके पूरे शरीर का एक साथ अध्ययन करके ही उसे दवाई देता है , ठीक उसी प्रकार पद्धति विचारधारा में प्रबन्धक भी निर्णय लेते समय संस्था के सभी विभागों एवं उप – विभागों पर निर्णय के प्रभाव को ध्यान में रखकर ही कोई अन्तिम निर्णय लेते हैं । प्रबन्ध की इस विचारधारा के अनुसार प्रबन्ध करने के लिए संपूर्ण संगठन को एक इकाई मानकर चला जाता है जिसमें अनेक उप – इकाइयां या विभाग सम्मिलित होते हैं । इस विचारधारा के समर्थकों का यह मानना है कि संस्था के सभी विभागों एवं उप – विभागों के उद्देश्य अलग – अलग न होकर , सभी का प्रयास संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करना होता है । अतः सभी की क्रियाओं का एक इकाई के रूप में अध्ययन किया जाना चाहिए । ऐसा करने से किसी विभाग या उप – विभाग के द्वारा की गई लापरवाही का शीघ्र पता लग सकेगा । वास्तव में , यह विचारधारा सभी क्रियाओं के समन्वय पर जोर देती है । Anima

( 11 ) यह एक गतिशील व्यवस्था है ( Itis a Dynamic System )

प्रबन्ध व्यवस्था कुछ सिद्धांतों ( Principles ) पर आधारित है जो कि गतिशील हैं । सिद्धांत का अभिप्राय ऐसे आधारभूत सत्य से है जो कारण एवं परिणाम ( Cause and Effect ) में संबंध स्थापित करता है । प्रबन्ध के सिद्धांत उस वातावरण के अनुरूप बदलते रहते हैं जिसमें एक संस्था कार्यरत होती है । वातावरण में लगातार परिवर्तन होने के कारण अनेक पुराने सिद्धांतों का स्थान नये सिद्धांत ले चुके हैं । अभी भी सामाजिक , तकनीकी , राजनैतिक व औद्योगिक वातावरण में हो रहे परिवर्तनों के अनुसार नये सिद्धांतों की खोज जारी है और किसी सिद्धांत को अंतिम नहीं माना जा सकता । इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि प्रबन्ध में कुछ भी स्थाई नहीं है । परिवर्तनों के विपरीत प्रभाव के डर से प्रबन्धक इनका पहले से ही अनुमान लगा लेते हैं और अपनी संस्था की नीतियों व योजनाओं को ऐसा मोड़ देते हैं कि कल जब भविष्य में ये परिवर्तन होंगे तब उनकी संस्था के परिणामों को प्रभावित नहीं करेंगे । कई बार प्रबन्धक व्यावसायिक वातावरण को अपने पक्ष में बदलने का प्रयास करते हैं । उदाहरण के लिए , ग्राहकों की रुचि के अनुसार नई वस्तुओं का उत्पादन करना , ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए नई विक्रय नीति की घोषणा करना , नये बाजारों की खोज करके अपने माल का विक्रय करना आदि ।

( 12 ) इसका सामाजिक उत्तरदायित्व होता है ( It involes Social Responsibility ) 

आज प्रबन्ध को सामाजिक दायित्व के रूप में देखा जाता है । प्रबन्धक सदैव संस्था के हित में निर्णय लेता है , लेकिन यदि किसी निर्णय से संस्था का हित होता हो और समाज का अहित तो ऐसे निर्णय से न केवल उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा , बल्कि उसका पतन भी स्वाभाविक है । दूसरे शब्दों में , प्रबन्धक के किसी भी ऐसे निर्णय को स्वीकार नहीं किया जायेगा जो एक पक्षीय हो । उदाहरण के लिए , यदि एक उच्चस्तरीय प्रबन्धक द्वारा किसी रिहायशी क्षेत्र में कारखाना लगाने का निर्णय लिया जाता है जिससे वातावरण दूषित होने की संभावना है तो लोग इस तरह की संस्था व उसके प्रबन्धक के अस्तित्व को खतरे में डाल देंगे । इसी प्रकार यदि माल की क्वालिटी घटिया है , मूल्य ऊँचा है तथा माल का अनुचित स्टॉक किया गया है तो सम्बन्धित निर्णय संस्था के हित में हो सकते हैं लेकिन समाज इनके लिए व्यवसाय को कभी माफ नहीं करेगा । बात ग्राहकों को ही संतुष्ट करने तक सीमित नहीं है बल्कि अंशधारी , कर्मचारी , सरकार आदि भी प्रबन्ध से अपेक्षायें रखते हैं जिनको संतुष्ट करना भी प्रबन्धक के लिए आवश्यक है । अतः स्पष्ट है कि प्रबन्ध का संबंध केवल संस्था तक सीमित न होकर समाज के साथ भी है । प्रबन्ध के सामाजिक दायित्व का विस्तृत वर्णन अगले अध्याय में किया गया है ।

( 13 ) यह एक पेशा है ( It is a Profession )

आज प्रबन्ध की ख्याति एक पेशे के रूप में है । प्राचीन विचारधारा कि प्रबन्ध योग्यता जन्म से ही मनुष्य में होती है अब प्रायः समाप्त हो गई है । वर्तमान में प्रबन्धशास्त्र में हो रही तीव्र प्रगति ने यह सिद्ध कर दिया है । कि प्रबन्धक जन्म नहीं लेते अपितु प्रशिक्षण देकर बनाये जाते हैं । इसी धारणा के फलस्वरूप प्रबन्ध को पेशे की दृष्टिकोण से देखा जाने लगा है । विश्व के अनेक विकसित देशों , जैसे – अमेरिका , इंग्लैंड , जर्मनी , फ्रांस , जापान आदि ने प्रबन्ध को एक स्वतन्त्र पेशे के रूप में स्वीकार किया है । हमारे देश में भी पूंजीपति प्रबन्धकों का स्थान पेशेवर प्रबन्धकों ने ग्रहण करना आरम्भ कर दिया है । आज स्थिति यह है कि किसी व्यक्ति को एक व्यवसाय का प्रबन्धक केवल इसलिए नहीं बनाया जाता कि उसने व्यवसाय में पूंजी लगाई है या वह पूंजी लगाने वाले का संबंधी है बल्कि इसलिए कि उसमें प्रबन्ध की योग्यता है । इसी आधार पर प्रबन्धकों को भी डाक्टरों , वकीलों , अध्यापकों आदि की भान्ति पेशेवर व्यक्ति माना जाने लगा है । प्रबन्ध को पेशा माने जाने के संबंध में विस्तृत वर्णन अगले अध्याय में किया गया है।

( 14 ) यह विज्ञान एवं कला दोनों है ( It is both Science and Art ) 

यह प्रबन्ध की प्रकृति का एक मुख्य पहलू है । प्रबन्ध में कला तथा विज्ञान दोनों की विशेषतायें पाई जाती हैं । कला का अभिप्राय किसी कार्य को व्यवस्थित ढंग से करने की एक पद्धति से है । इस सन्दर्भ में प्रबन्ध को कला इसलिए कहा जाता है क्योंकि प्रबन्ध प्रक्रिया में प्रबन्धक को मानव समूह के साथ कार्य करना होता है । और एक कुशल प्रबन्धक हर कार्य को व्यवस्थित या क्रमबद्ध तरीके से करने का प्रयास करता है , जैसे – मानवीय एवं भौतिक साधनों में समन्वय स्थापित करना । दूसरी ओर , प्रबन्ध को विज्ञान इसलिए कहा जाता है क्योंकि विज्ञान की ही भान्ति इसके भी निश्चित सिद्धांत एवं नियम हैं जो प्राय : सामान्य रूप से लागू होते हैं । उदाहरण के लिए , कार्य विभाजन एवं विशिष्टीकरण का सिद्धांत सभी क्षेत्रों में लागू होता है । इस सिद्धांत का अभिप्राय यह है कि यदि कार्य विभाजन योग्यता एवं रुचि के अनुसार किया जाये तथा एक व्यक्ति को बार – बार एक ही कार्य सौंपा जाये तो उसकी कार्यकुशलता में वृद्धि होगी । अतः प्रबन्ध कला एवं विज्ञान दोनों है । इस संबंध में और अधिक जानकारी अगले अध्याय में दी गई है

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